नैनीताल की प्रसिद्ध नैनीझील, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता और जैव विविधता के लिए जानी जाती है, अब एक अनूठी पर्यावरणीय पहल का केंद्र बन रही है। कुमाऊं यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने नैनीझील में दुर्लभ स्नो ट्राउट मछली (Schizothorax richardsonii) को पुनर्जनन और संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। इस प्रोजेक्ट में बायोफ्लॉक तकनीक का उपयोग किया जा रहा है, जो मछली पालन को अधिक टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल बनाता है। यह पहल न केवल झील की जैव विविधता को पुनर्जनन करने में मदद करेगी, बल्कि स्थानीय पर्यावरण संरक्षण के लिए भी एक मील का पत्थर साबित होगी।
प्रोजेक्ट का उद्देश्य और महत्व
स्नो ट्राउट, जो हिमालयी क्षेत्र की ठंडी जलधाराओं और झीलों में पाई जाने वाली एक स्वदेशी मछली प्रजाति है, पिछले कुछ दशकों में प्रदूषण, अवैध मछली पकड़ने, और पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण नैनीझील में लगभग लुप्त हो चुकी है। कुमाऊं यूनिवर्सिटी के मत्स्य विज्ञान विभाग ने इस प्रजाति को बचाने और नैनीझील के पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित करने के लिए बायोफ्लॉक तकनीक को अपनाया है। इस तकनीक के माध्यम से, मछलियों को नियंत्रित और पर्यावरण-अनुकूल परिस्थितियों में पाला जा रहा है, जिससे झील के पानी की गुणवत्ता पर न्यूनतम प्रभाव पड़ता है।
बायोफ्लॉक तकनीक: एक क्रांतिकारी कदम
बायोफ्लॉक तकनीक मछली पालन की एक आधुनिक और टिकाऊ विधि है, जिसमें विशेष टैंकों में मछलियों को पाला जाता है। इस तकनीक में मछलियों के अपशिष्ट को सूक्ष्मजीवों (बायोफ्लॉक बैक्टीरिया) के माध्यम से प्रोटीनयुक्त चारे में परिवर्तित किया जाता है, जिसे मछलियाँ फिर से खाती हैं। इससे न केवल पानी की बर्बादी कम होती है, बल्कि मछलियों की वृद्धि भी तेजी से होती है।
कुमाऊं यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने नैनीझील के पास विशेष बायोफ्लॉक टैंक स्थापित किए हैं, जहाँ स्नो ट्राउट के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ बनाई गई हैं। इन टैंकों में पानी का तापमान, ऑक्सीजन स्तर, और पीएच मान हिमालयी स्नो ट्राउट के लिए अनुकूल रखा गया है। यह तकनीक पारंपरिक मछली पालन की तुलना में कम जगह और कम लागत में अधिक उत्पादन देने में सक्षम है।
पर्यावरण संरक्षण में योगदान
नैनीझील का पारिस्थितिकी तंत्र पिछले कुछ वर्षों में प्रदूषण, पर्यटन के दबाव, और जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित हुआ है। स्नो ट्राउट जैसी स्वदेशी प्रजातियों का पुनर्जनन न केवल जैव विविधता को बढ़ावा देगा, बल्कि झील के पारिस्थितिकी संतुलन को भी बनाए रखेगा। बायोफ्लॉक तकनीक के उपयोग से पानी की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव कम होता है, क्योंकि यह पानी के पुनर्चक्रण को बढ़ावा देता है और बाहरी रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करता है।
इसके अलावा, यह प्रोजेक्ट स्थानीय समुदायों को भी लाभ पहुँचाएगा। मछली पालन के इस मॉडल को अपनाकर स्थानीय मछुआरे और किसान अपनी आय बढ़ा सकते हैं। कुमाऊं यूनिवर्सिटी ने स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण देने की योजना भी बनाई है, ताकि वे इस तकनीक को अपनाकर स्वरोजगार के अवसर प्राप्त कर सकें।
चुनौतियाँ और भविष्य की योजनाएँ
हालांकि यह प्रोजेक्ट आशाजनक है, लेकिन इसे लागू करने में कुछ चुनौतियाँ भी हैं। स्नो ट्राउट एक संवेदनशील प्रजाति है, जिसे ठंडे और स्वच्छ पानी की आवश्यकता होती है। नैनीझील में बढ़ते प्रदूषण और पर्यटकों की भीड़ के कारण पानी की गुणवत्ता को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा, बायोफ्लॉक तकनीक को बड़े पैमाने पर लागू करने के लिए पर्याप्त धन और तकनीकी संसाधनों की आवश्यकता होगी।
कुमाऊं यूनिवर्सिटी ने इस प्रोजेक्ट को और विस्तार देने के लिए उत्तराखंड सरकार और केंद्रीय मत्स्य पालन विभाग के साथ सहयोग की योजना बनाई है। भविष्य में, इस तकनीक को अन्य हिमालयी झीलों और नदियों में भी लागू करने की संभावना तलाशी जा रही है, ताकि स्नो ट्राउट और अन्य स्वदेशी मछली प्रजातियों को संरक्षित किया जा सके।
निष्कर्ष
कुमाऊं यूनिवर्सिटी की यह पहल नैनीझील को उसके मूल पारिस्थितिकी गौरव को वापस दिलाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। स्नो ट्राउट मछली का पुनर्जनन न केवल पर्यावरण संरक्षण के लिए, बल्कि स्थानीय समुदायों की आर्थिक समृद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण है। बायोफ्लॉक तकनीक के उपयोग से यह प्रोजेक्ट टिकाऊ विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी योगदान दे रहा है।
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